Sunday, December 18, 2011

Sadhan-Path

साधन - पथ
स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की संसार को यह बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने सभी धर्मों के मतभेद को समाप्त कर दिया. उन्होंने बताया कि किसी भी धर्मं की सच्ची साधना से भगवान की प्राप्ति की जा सकती है. इस विचार ने विश्व- प्रेम की दिशा में बहुत बड़ा काम किया और कर रहा है.
परन्तु इससे लोगों के मन में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि जब सभी धर्मं एक ही बात बताते हैं तो फिर इतने धर्मं उत्पन्न क्यों हुए. इसका उत्तर स्वामी विवेकानंद ने यह दिया कि सभी धर्मं केवल बाह्य रूप में ही भेद रखते हैं, यह भेद देश- काल- परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है और मूल रूप में इनमें कोई भेद नहीं है.
लेकिन श्री अरविन्द योग के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दूसरी प्रकार से दिया जायेगा. श्री अरविन्द योग के अनुसार साधक यदि एक अन्य रूप में भगवान की अभिव्यक्ति चाहता है तब भी साधन-पथ में भिन्नता आ जाएगी. यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि श्री अरविन्द योग का साधक यह तो हमेशा मानेगा कि उसका साधन पथ अन्य मार्गों से भिन्न है पर उसका अन्य साधन पथों से कोई बैर नहीं है. उसे ज्ञात रहता है कि अन्य पथ के लोग भगवान की अभिव्यक्ति अन्य रूपों में चाहते हैं तो हममें और उनमें भेद तो रहेगा ही.
एक प्रश्न और उठता है कि स्वामी विवेकानंद ने धर्मं शब्द प्रयोग किया है जबकि श्री अरविन्द ने साधन पथ और अध्यात्म पथ शब्द का प्रयोग किया है तो क्या श्री अरविन्द योग के साधक का अपने जन्म से प्राप्त धर्मं से सम्बन्ध छूट जाता है? तो इसका उत्तर यह है कि श्री अरविन्द ने अध्यात्म की अपेक्षा सम्पूर्ण धर्मं को ही बाह्य वस्तु माना है. इसलिए जगत के व्यवहार में तो धर्मं बना रहेगा परन्तु आध्यात्मिक और अतिमानसिक चेतना यह उद्घोषित करती रहेगी कि यह केवल व्यवहार ही है. समझदार साधक उसका नाम पूछने पर यह नहीं कहता कि वह तो एक आत्मा है, आत्मा का क्या नाम क्या रूप.
परन्तु अपने सच्चे स्वरुप को उद्घाटित करते हुए श्री माँ ने एक जगह कहा था - मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूँ, मैं भगवान की हूँ.

Thursday, December 15, 2011

Satya aur Prem

ईश्वर की प्राप्ति सत्य या प्रेम किसी से भी की जा सकती है. पर साधन - काल में सत्य को पकड़ कर चलना ज्यादा ठीक रहता है. प्रेम हृदय की चीज है जबकि सत्य दिमाग की चीज है. प्रेम में जरा सी भी सतर्कता न बरती जाये तो यह भावुकता या आसक्ति में परवर्तित हो जाता है. जबकि सत्य को पकड़ कर चलने में ऐसा कोई खतरा नहीं होता. हाँ, कभी- कभी सत्य को पकड़ कर चलने वाला बहुत कठोर व्यवहार कर बैठता है. वह अपने आस- पास के सत्यहीन व्यक्तियों से मृदु व्यवहार नहीं कर पाता है. उसके लिए बस इतनी सलाह है कि वह ऐसे लोगों से मृदु व्यवहार न कर पाए तो न करे पर ज्यादा से ज्यादा मौन रहे .
कई बार ऐसा भी लगता है कि सत्यहीन व्यक्तियों पर क्रोध न किया जाये तो समाज में असत्यता बढती जाती है. पर समाज में असत्यता बढती है या घटती इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए. केवल अपने सत्यपालन पर ध्यान देना चाहिए. हाँ, यह बहुत बाद में ज्ञात होता है कि ऐसे सत्यपालक का प्रभाव बढता ही जाता है. पर वर्तमान में जगत में इतना झूठ भरा है कि इस बात को दिखने में समय लग जाता है.
कई बार ऐसा सत्यपालक खुद ही संशय में होता है कि उसका निर्णय सही है या गलत. पर इस बात की भी परवाह नहीं करनी चाहिए. बस उस समय में जो सबसे सही लगे वह करना चाहिए. माना गलत निर्णय हो गया तो उसके लिए पश्चाताप भी नहीं करना चाहिए. कई बार बाद में ऐसा महसूस होता है कि उस समय जिसको सही समझा था आज गलत लग रहा है. तो ठीक है अब आगे से हम वो करेंगे जो अब सही लग रहा है.
बहुत रहस्य कि बात है कि प्रेम के साधक को सत्य और सत्य के साधक को प्रेम प्राप्त हो जाता है. बात केवल प्रारंभ के समय की है. भावुकता या आसक्ति के कारण पतन न हो जाये इसलिए साधना सत्य को पकड़ कर प्रारंभ करनी चाहिए.

Wednesday, September 28, 2011

Ishwar Ek Hai

ईश्वर एक है. पर वह अनंत रूपों में अपने को अभिव्यक्त करता है. इसलिए भ्रमवश व्यक्ति उसको अनेक मान लेते हैं. चूँकि प्रत्येक अभिव्यक्ति के दर्शन के लिए भिन्न - भिन्न मार्ग हैं इसलिए उसको पाने के मार्ग भी अनेक हैं. परन्तु चूँकि प्रत्येक मार्ग का लक्ष्य ईश्वर ही है, हमें अपने मार्ग पर चलते हुए भी अन्य मार्गों के प्रति सहिष्णु होना चाहिए.
जो यह जान जाता है कि वह एक ईश्वर अपने को अनंत रूपों में अभिव्यक्त कर सकता है और प्रत्येक अभिव्यक्ति के दर्शन के लिए एक अलग मार्ग है वह अपने मार्ग पर चलने के लिए अन्य व्यक्तियों को बाध्य नहीं करता. उसे तो ये अनेक मार्ग ऐसे लगते हैं जैसे कि एक बगीचे में विभिन्न प्रकार के फूल खिले हों. इन फूलों के विभिन्न रूपों और विभिन्न प्रकार की सुगंधों से वह बहुत प्रसन्नता का अनुभव करता है. एक समझदार भक्त समझता है कि केवल एक फूल के अस्तित्व से तो केवल एक रूप और केवल एक प्रकार की सुगंध ही प्राप्त होगी.
दूसरी बात यह है कि जहाँ दो होते हैं वहाँ प्रतिस्पर्धा कि संभावना बनी रहती है. ईश्वर भी दो होते तो वहाँ भी प्रतिस्पर्धा हो सकती थी. फूलों के उदाहरण में भी क्योंकि यह एक भौतिक उदाहरण है, हम फूलों के रूप या सुगंध के आधार पर उनको ऊपर- नीचे का दर्जा दे सकते हैं. परन्तु भगवान अपनी हर अभिव्यक्ति में पूर्णतयः समान होते हैं. हम अपनी मनुष्य- बुद्धि के कारण उनकी अभिव्यक्तियों में ऊपर- नीचे का भाव रखने की गलती कर सकते हैं.
जहाँ ईश्वर है वहाँ काल नहीं है. पर हम अपने समझने के लिए कहते हैं कि सृष्टि से पहले केवल एक ईश्वर था. तो क्या सृष्टि हो जाने पर दो वस्तुएं अस्तित्व में आ गयीं. नहीं ऐसा नहीं है. वह ईश्वर ही एक से अनेक हो गया है. यह अनेकता ही सृष्टि है .परन्तु समग्रता में देखने पर सृष्टि कुछ नहीं केवल ईश्वर ही है. वह ( ईश्वर ) अनेक होकर भी एक ही है. अनंत तक विस्तृत अनेक वही ( ईश्वर ) बना हुआ है. यही ज्ञान है. इसकी सिद्धि ही भगवत - प्राप्ति है.

Tuesday, September 27, 2011

Bhagwat Chetna se Sachetan Sahyog

भागवत चेतना से सचेतन सहयोग
भागवत चेतना निरंतर सबके विकास के लिए सक्रिय है. वह पत्थरों, पेड़- पौधों, पशुओं और मनुष्यों सभी में निरंतर विकास कर रही है. प्रश्न उठता है कि यदि पत्थर के विकास से पेड़ - पौधों के बीज बने तो जब पेड़ - पौधे अस्तित्व में आये तो पत्थरों का अस्तित्व समाप्त हो जाना चाहिए था. परन्तु ऐसा नहीं है. समष्टि विकास अपनी प्रक्रिया में व्यष्टि का अस्तित्व प्रकट करता है. और विकास दो रूपों में विभाजित हो जाता है.पत्थरों के समष्टि विकास से कुछ पत्थरों को व्यष्टि अस्तित्व प्रदान किया गया.यही प्रथमतः पेड़ - पौधों के मूल बीज बने. इसी प्रकार पेड़ - पौधों में भी कुछ विकसित व्यष्टियाँ प्रकट हुयीं. जिनसे पशुयों का अस्तित्व प्रकट हुआ. फिर पशुयों में भी विकास समष्टि रूप के साथ साथ कुछ विशिष्ट व्यष्टियाँ प्रदान करने का हुआ. और इससे मनुष्य जाति प्राप्त हुई. मनुष्य में भी इसी प्रकार विशिष्ट व्यष्टियाँ प्रकट हो रही हैं. ये विशिष्ट व्यष्टियाँ, वर्तमान सन्दर्भ में, विशिष्ट व्यक्ति भागवत चेतना के प्रति सचेत हो जाते हैं. ऐसे व्यक्ति भागवत चेतना हमें जिस अंतिम लक्ष्य की ओर ले जाना चाहती है उसमें सहयोग कर सकते हैं. यह सहयोग वे ह्रदय के शुद्ध प्रेम यानि भक्ति योग , भागवत ज्ञान के लिए जिज्ञासा यानि ज्ञान योग और अपनी कामनायों का अभाव करके भी कर्म करके यानि कर्म योग के द्वारा देते हैं. बाद में उनमें ये तीनो योग एक साथ उपलब्ध हो जाते हैं और वे भागवत चेतना को सहयोग देने में सचेतन यंत्र बन जाते हैं.

Monday, September 26, 2011

Sri Arvind Society ki Sthapana

श्री अरविन्द सोसाइटी की स्थापना
श्री अरविन्द सोसाइटी की स्थापना क्या एक नए धर्मं या सम्प्रदाय की स्थापना है ? नहीं, ऐसा नहीं है.
सभी धर्मं और सम्प्रदाय भगवान तक पहुँचने के मार्ग हैं. जिसको इस बात पर विश्वास हो जाता है उसका किसी भी धर्मं या सम्प्रदाय से कोई भेद नहीं रह जाता. लेकिन जब किसी को लगता है कि केवल उसी का धर्मं या सम्प्रदाय भगवान तक पहुंचा सकता है तो मतभेद का प्रारंभ हो जाता है. हर व्यक्ति को अपना धर्मं या सम्प्रदाय प्यारा होता है और उसको उसके प्रेम और आस्था से हिलाने की जो भी कोशिश करता है उसको वह अपना शत्रु मानता है.
परन्तु ऐसा हर साधक के साथ होता है कि वह पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने धर्मं या सम्प्रदाय की शिक्षायों का पालन करता है पर उसको लगता है कि उसको भगवान की प्राप्ति नहीं हो रही है.उस समय संसार में हमेशा महापुरुष, मसीहा, पैगम्बर, या अवतार जन्म लेते हैं. ये लोगों की भगवान की प्राप्ति में मदद करते हैं. इनके मन में संपूर्ण मानव जाति के लिए प्रेम भरा होता है. ये किसी की भी उसके धर्मं या सम्प्रदाय में श्रद्धा हिलाते नहीं हैं बल्कि उसकी श्रद्धा उसी के धर्मं या सम्प्रदाय में दृढ करते हैं. हाँ, अपने काम को सम्पादित करने के लिए ये किसी समिति या समाज की स्थापना कर सकते हैं. पर यह किसी नए धर्मं या सम्प्रदाय की स्थापना नहीं होती. उनके शिष्यों और अनुगामियों का भी यह कर्त्तव्य होता है कि समस्त मानव जाति को भगवान की प्राप्ति की ओर बढाएं.
इसी उद्देश्य से श्री अरविन्द सोसाइटी की स्थापना हुई है. श्री अरविन्द सोसाइटी दुनिया भर के समस्त धर्मों और सम्प्रदायों के अनुगामियों को भगवान की प्राप्ति के मार्ग पर मदद करने के लिए है न कि एक नया धर्मं या सम्प्रदाय खड़ा करने के लिए.

Friday, March 25, 2011

Good and Bad

Good and Bad
When we aquire some thinking power first thing which we get from our parents is that this is good and that is bad. We have a simple faith in our childhood so we believe on whatever they teach. But when we aquire some more understanding we feel their so called good and bad are not exactly good and bad for us. Then some persons come forward and tell us some more modified good and bad. It may help us for some more time. But we see the end is again futile.
Then we meet some other persons who tell us that we have to search our good and bad ourselves. But after some time the result is the same. And then we make a resolution that nothing is good or bad. And we start our all activities under this dictum. But now we are facing a good resistance from society. Now all our individuality is shattered,all our personality is broken. Sometimes we feel a great hate for the society but at once a fear complex or a cowardice or a helpless condition.
It is the condition of about 99 percent people. All our freedom has been snatched by the society, we feel.
Is there any solution for this Problem. Yes, we have a solution. Go very inside your heart. There you will see your soul. It will tell you the real good and bad. It will inspire you to follow the Good and it will give you such a strength that even whole of the world is against your good you will follow your good, you will go forward on your good.

Tuesday, February 22, 2011

Shri Maan ka Avtaran

श्री माँ का अवतरण
श्री माँ का अवतरण २१ फ़रवरी १८७८ को फ्रांस में हुआ था. श्री माँ के जीवन की घटनायों को देना यहाँ अभिप्रेत नहीं है. और किसी अवतार के जीवन की घटनायों के बारे में बताने से शायद उस अवतार का हम एक प्रतिशत भी परिचय नहीं दे पाते हैं. वस्तुतः हम किसी अवतार का पूर्ण परिचय तो दे ही नहीं सकते हैं. यह तो केवल इसलिए किया जाता है की उसके स्मरण से उसने हमारे लिए जीवन का जो लक्ष्य बताया होता है हम उस ओर प्रगति करते हैं.
श्री माँ भागवत चेतना की अवतार हैं. चेतना दो रूपों में कार्य करती है -- एक ज्ञान के रूप में, दूसरे शक्ति के रूप में.
श्री माँ के शब्दों में -- पृथ्वी पर जब कहीं जहाँ कहीं चेतना की एक किरण को अभिव्यक्त करने की सम्भावना थी मैं वहाँ उपस्थित थी.
भागवत चेतना त्रिविध रूप में निरंतर रहती है. ये त्रिविध रूप हैं -- परात्पर, सर्वव्यापक आत्मा और जीवात्मा. जब जब पृथ्वी पर व्यक्तिरूप लेकर कार्य करना अपरिहार्य हो जाता है तब यह चेतना एक रूप लेकर आविर्भूत हो जाती है. यही अवतार रूप कहलाता है. अवतार को कोई कर्मबंधन नहीं होता. यह तो केवल लोककल्यानार्थ प्रेमवश अवतरित होता है.
यह अवतार अपने जीवनकाल में स्वयं दिव्य होने पर भी बार- बार अपने को पृथ्वी चेतना से जोड़ता है. और तब ऊपर को उठता है. इससे पृथ्वी चेतना का विकास होता है. परन्तु कुछ समय बाद पृथ्वी चेतना अपने को अलग कर लेती है. तब यह अवतार पुनः पृथ्वी चेतना से अपने को जोड़ने के लिए नीचे उतरता है. शरीर रहते यह उतरना बड़ा विलक्षण होता है.
कुछ लोगों की धारणा है कि अवतार को कोई पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती. वास्तव में इसका ठीक उल्टा होता है. अवतार के हर बार के अवतरण में पृथ्वी कि सारी पीड़ाएं भी उससे जुड़ जाती हैं. इन पीड़ाओं पर विजय पाते हुए ही वह ऊपर को उठता है. इन विजयों से सर्वप्रथम सूक्ष्म जगत में इन पीड़ायों का नाश हो जाता है परन्तु स्थूल जगत ( पृथ्वी ) तक इन विजयों को अभिव्यक्त होने में अधिक समय लगता है. श्री माँ ने एक जगह बताया था कि उन्होंने कैंसर रोग को सूक्ष्म जगत में नष्ट कर दिया है.
यहाँ पर अवतार के कार्यों के एक संछिप्त से वर्णन के द्वारा परोक्ष रूप से श्री माँ की आतंरिक कार्य - विधि का थोड़ा सा दर्शन कराया गया है. लेख का आकर समुचित रखने हेतु इस लेख का पर्यवसान किया जाता है.

Sunday, January 30, 2011

Kitabi Gyan

किताबी ज्ञान
" भगवान बड़े दयालु हैं " यह हम किसी किताब में पढ़ लें और सबसे कहना भी शुरू कर दें तो यह केवल किताबी ज्ञान ही हुआ. लेकिन रहस्य की बात यह है कि जब हम भगवान को दयालु कहते हैं तो भगवान तो हमारी परीक्षा नहीं लेते पर चूँकि विरोधी शक्तियों को भगवान की प्रतिष्ठा से बड़ी चिड होती है, वे नहीं चाहतीं कि भगवान का प्रभाव फैले, वे फ़ौरन ही हमारे ऊपर अनगिनत परेशानियों को डालना शुरू कर देती हैं.
और यही समय हमारे किताबी ज्ञान को अनुभव ज्ञान में बदलने का होता है. इस दृष्टि से देखा जाये तो विरोधी शक्तियों के द्वारा हम पर डाली गयी परेशानियाँ हमें अनुभव ज्ञान से पूर्ण करने आती हैं. बस प्रश्न यह उठता है कि भगवान जो कि सर्वशक्तिमान हैं ऐसे समय में हमारी मदद क्यों नहीं करते. पर विचार किया जाये तो यह स्पष्ट मालूम पड़ता है कि भगवान तो केवल इसलिए चुप थे कि वो भी हमें शक्तिशाली ही देखना पसन्द करते हैं.
किताबों में जो लिखा है वो सब दूसरों का अनुभव है. उसके द्वारा वे बताना चाहते हैं कि यदि हम इन बातों को प्रयोग में लायेंगे तो हमारे जीवन में भी वह सब प्राप्त हो जायेगा जो उन्हें प्राप्त था या है. इसलिए जब तक हम स्वयं किसी बात का अनुभव न कर लें हमें वह बात दूसरों से नहीं कहनी चाहिए. इसके द्वारा हम अपने ऊपर विरोधी शक्तियों के आक्रमण का द्वार खोल देतें हैं.
साधारण जीवन में भी हमें कभी बड़ - चढ़ कर बातें नहीं करनी चाहिए. उदाहरण के लिए हम कार चलाना सीख रहे हैं अब किसी ने पूछा कि क्या तुम्हें कार चलाना आता है तो यह कभी नहीं कहना चाहिए कि हाँ. हमारे अन्दर एक आत्मविश्वाश होता है जब तक यह आत्मविश्वाश यह न कह दे कि हमें कार चलाना आ गया है तब तक हमारा उत्तर केवल यह होना चाहिए कि अभी हम सीख रहे हैं. यहाँ यह नहीं सोचना चाहिए कि यहाँ तो हम कार चलाना सीख ही रहे हैं इसमें किताबी ज्ञान की तो कोई बात नहीं है पर व्यवहारिक जगत में किसी कम को सीखे
बगैर उसको सीखा हुआ कहना भी किताबी ज्ञान ही है

Saturday, January 22, 2011

Jad - dravya ki aswikarita

जड़ - द्रव्य की अस्वीकारिता

हमारे शरीर के जड़ द्रव्य में एक चेतना होती है. यदि हम इस बात को स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाते हैं तो हम इस तरह से स्वीकार कर सकते हैं कि हमारा मन तीन द्रव्यों से बना है जिसमे पहला है मन, दूसरा है प्राणिक मन और तीसरा है भौतिक मन.
इस भौतिक मन की चेतना में संदेह, अविश्वास, डर, आलस्य, तमस आदि निवास करते हैं. इसकी जड़ता किसी भी चीज के प्रवेश को अपने अन्दर प्रवेश करने से रोकती है.
माना हम जिस शहर में रहते हैं वहां कोई महामारी फ़ैल जाये तो शरीर की जड़ चेतना या भौतिक मन उसको अपने अन्दर प्रवेश लेने से रोकता है पर साथ ही इस जड़ चेतना या भौतिक मन में डर का अंश भी बहुत होता है जो बार -बार डरता है कि कहीं यह बीमारी मुझे भी न हो जाये. यह डर ही इसकी जड़ता को हिलाता है और इस बीमारी को हमारे अन्दर प्रवेश करा देता है.
वहीँ जब हम किसी सत्संग में जाते हैं तो वहां सामान्य से अधिक आध्यात्मिक परमाणु होते हैं परन्तु हमारा भौतिक मन अपनी जड़ता के कारण उनको बहुत कम मात्रा में ग्रहण कर पाता है. चूँकि यहाँ भौतिक मन को डर के कारण क्रियाशील होने के अवसर नहीं हैं इसलिए हम बहुत थोड़ा ही ग्रहण कर पाते हैं.
कई बार हम किसी परेशानी में फंसे होते हैं तो हम थोड़ा डर भाव लेकर सत्संग में जाते हैं तब हम कुछ अधिक सत्संग के परमाणु ग्रहण कर लेते हैं. उसके बाद यदि हमारे भौतिक मन के संदेह और अविश्वास के अंश ज्यादा क्रियाशील न हों तो यह ग्रहण हमारे पास ज्यादा स्थाई हो सकता है .
ऐसा ही प्रायः तीर्थयात्रा के समय भी होता है. हमारा मन और प्राणिक मन तो थोड़ा बहुत ग्रहण करता है पर भौतिक मन प्रायः कुछ भी ग्रहण नहीं करता और प्रायः तीर्थयात्रा से लौटते- लौटते तक हम ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि पहले थे. भौतिक मन की ग्रहण शीलता संदेह और अविश्वास को हटाकर ही बड़ाई जा सकती है. इसके लिए हमें अपने मन को उत्तरोत्तर सचेत करना होगा. यद्यपि मन और प्राणिक मन स्वयं अपने आप बहुत प्रगति करने में सक्षम नहीं हैं. सबसे अधिक लाभ तब होता है जब हम अपनी आत्मा को सबसे अधिक प्रधानता देते हैं. गीता में इस भाव को रखने वाला एक श्लोक है जिसका भावार्थ निम्नलिखित है.
शरीर से पर ( शक्तिशाली ) इन्द्रियां ( प्राणिक मन ) हैं. इन्द्रियों से पर मन है. मन से पर बुद्धि ( उच्च मन ) और बुद्धि से भी पर आत्मा है.
अध्याय- 3 , श्लोक- 42

Saturday, January 15, 2011

Adhyatma Aur Vishalta

अध्यात्म और विशालता
अध्यात्म में विशालता का बहुत महत्व है. बिल्कुल अंत में तो " मैं सबमें हूँ सब मुझमें है ", " मेरा मैं और विश्व का विराट मैं एक हैं '', " मैं ही सब जड़ चेतन बना हुआ हूँ " आदि जैसी अनुभूतियाँ होती हैं, परन्तु वह बहुत बाद की बात है. प्रारंभ में अपनी विशालता को बढाने के लिए हमें विभिन्न प्रकार की धारणाएं करनी पड़ती हैं .
सबसे पहले तो अनंत आकाश या विशाल समुद्र के किनारे बैठ कर उसमें अपने आपको खो देने का प्रयत्न करना चाहिए. दूसरा प्रयत्न हम यह कर सकते हैं कि जिस प्रकार हम अपने भाई को प्यार करते हैं उसी प्रकार सबसे उतना ही प्यार करने का प्रयत्न करें. इसमें व्यवहार में तो अंतर हो सकता है पर हमें हमेशा अपने दिल में टटोलना होगा कि क्या हमारा प्यार अन्य के साथ भी उतना ही है जितना कि अपने भाई के साथ है .
तीसरा प्रयत्न हम अपने अध्ययन के क्षेत्र में कर सकते हैं. यदि हम एक विद्यार्थी हैं तो विद्यालय की परीक्षा में पास होने के लिए हमें उन विषयों में एकाग्रता रखनी पड़ती है जो हमने चुन रखे हैं परन्तु कुछ समय हम यदि हम अन्य विषयों को दें तो यह हमारी विशालता बढाने में बहुत अधिक सहायक होगा. सामान्य जीवन में भी हमें विभिन्न विषयों का अध्ययन करने के लिए समय निकालना चाहिए.
एक बड़ा वैज्ञानिक, बड़े से बड़ा कलाकार,महान चित्रकार, महान खिलाडी आदि बनना एक महत्वाकांक्षा या स्वभाव हो सकता है परन्तु विशालता बढाने की दृष्टि से ज्यादा से ज्यादा विषयों का अध्ययन करना, कई तरह के खेल खेलना, कई वाद्य यंत्रों को बजाने का अभ्यास करना, चित्रकारी सीखना, पाक कला में हाथ अजमाना, शारीरिक व्यायामों का अभ्यास करना आदि के द्वारा अपने को विस्तारित करना अध्यात्मिक दृष्टि से बहुत लाभदायक होता है.
चूँकि अंतिम रूप में यह सबसे बड़ा सत्य है कि मेरा मैं और विश्व के अन्य किसी भी प्राणी में निवास करने वाला मैं एक ही है बिना विशालता के हम अध्यात्म-पथ पर आगे नहीं बढ पाएंगे. विशालता हमारे अन्दर नमनीयता, सहिष्णुता, सत्य की जिज्ञासा, प्रेम, अपनत्व और सामंजस्य का विकास करती है. अध्यात्म-पथ पर चलने के लिए ये सब आधारभूत गुण हैं.

Friday, January 7, 2011

Sri Arvind ka Yog

श्री अरविन्द का योग ( पूर्ण योग )

जब कभी हम पर परेशानियाँ आती हैं हम भगवान को याद करते हैं, उसकी पूजा करते हैं, उसका ध्यान करते हैं, उससे प्रार्थना करते हैं या वह सत्य खोजने की चेष्टा करते हैं जिससे कि ज्ञात हो कि हमारे ऊपर यह परेशानी क्यों आई.
इन दोनों ही प्रक्रियायों में हम संसार की गतिविधियों से थोड़ा दूर हट जाते हैं. हम पाते हैं कि इससे हमारी परेशानी समाप्त हो जाती है या कम होना शुरू हो जाती है. इससे एक लाभ तो होता है कि हमें यह ज्ञान होता है कि भगवान कि तरफ बढने या सत्य की जिज्ञासा मात्र से भी हमारे जीवन में शांति बढती है पर इससे एक हानि भी होती है कि हमारे मन में यह धारणा बनने लग जाती है कि संसार की गतिविधियों में लगे रहने पर हमें शांति नहीं मिल सकती. ये अनुभव हमें पलायनवाद की शिक्षा भी देतें हैं.
योग का अर्थ भगवान से जुड़ना होता है. हमें विभिन्न योगों ने भगवान से जुड़ने की विभिन्न पद्धतियाँ बताई हैं पर सभी योगों में यह माना जाता है कि यदि भगवान से जुड़ना है तो संसार छोड़ना पड़ेगा परन्तु श्री अरविन्द - योग ( पूर्ण - योग ) में हम भगवान से जुड़ते हैं, भगवान को प्राप्त करते हैं, भगवान को संसार में उतारते हैं और अंतिम लक्ष्य भगवान को संसार में अभिव्यक्त करते हैं.