Thursday, May 22, 2014

ANUBHAV GYAN




                                                             
                                                                  अनुभव   ज्ञान
                         सत्संग में लोग पूछते हैं कि आप अपना कोई अनुभव बताइये जिससे कि हमारा भी
          विश्वास बढ़े।  लेकिन जगत निरंतर एक गति में है।  कभी भी पुरानी परिस्थितियां पुनरावर्तित
          नहीं होतीं इसलिए पुराने अनुभवों का कोई भी महत्व नहीं है।  पुराने अनुभव उस व्यक्तिविशेष
        के जीवन में भी कोई लाभ नहीं पहुंचा सकते जिसके जीवन में वे घटित हुए हैं तो अन्य के जीवन
        में कैसे लाभ पहुंचा सकते हैं।
                         कुछ लोग कहते हैं कि आध्यात्मिक छेत्र में पुस्तकों का उतना महत्व नहीं है जितना
        कि अनुभव का है।  यह बात सही है परन्तु यह बात इसलिए नहीं कही गई है कि हम अपने पुराने
        अनुभवों को रटते रहें।  यह बात इसलिए कही गई है की प्रत्येक छन परिस्थिति बदल रही है ,
        हम प्रत्येक छन नए नए अनुभवों को ग्रहण करने के लिए अपने को खुला रक्खें।


     

Thursday, November 7, 2013

KYA JAGAT MITHYA HEI

                                             
                                                   क्या  जगत मिथ्या  है। 
                संसार के ज्यादातर आध्यात्मिक मार्गों ने बताया कि जगत मिथ्या है। मिथ्या  का क्या अर्थ 
है --- वह चीज जिसका अस्तित्व दिखाई तो दे पर हो नहीं।  थोड़ा चिंतन करने पर यह बात सही भी 
लगती है। क्योंकि जगत में कोई भी चीज स्थाई नहीं दिखाई नहीं देती।  यहाँ तक कि हमारा अपना 
शरीर भी। 
               जब लोगों को यह बात प्रत्येक आध्यात्मिक शिक्षा में मिली तो उनका जीवन दुःख से भर गया। 
यह मानी हुई बात है कि जब हमेशा मौत दिखाई देने लगे तो फिर जीवन जीने का आनंद ही समाप्त हो 
जाता है। 
                अब मनुष्य दुखी तो रह नहीं सकता तो उसने सोचा कि अपने जीवन से इन अध्यात्म की 
शिक्षायों को ही बाहर कर दो।  मरना तो एक दिन है ही जब मरना है तब मर जायेंगे।  लेकिन जब तक 
जिन्दा हैं तब तक तो सुख से जियो।  
                 जहाँ तक मेरी जानकारी है श्री अरविन्द वह पहले आध्यात्मिक पुरुष हैं जिन्होंने बताया कि जगत मिथ्या नहीं है। 

Wednesday, November 6, 2013

Avtar Ke Karya

         
                                          अवतार  के   कार्य
                       अवतार निरंतर विकास करता है।  कई जगह ऐसा लगता है कि उसके कुछ पुराने निर्णय
  पूर्णतया अविकसित या बहुत कम विकसित दशा के थे और उसके अनुयायियों को उनका पालन नहीं
  करना चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है उनका उपयोग होता है और बहुत बाद के वर्षों में भी अनुयायियों के
 जीवन में ऐसे अवसर आते हैं कि उन्हीं का उपयोग सर्वोत्तम होता है।  

Monday, October 7, 2013

Death & Supramental Consciousness

So far I have understood YOG of Sri Aurobindo there was not any aim to conquer death of body. He was searching Truth of existence of this world. He was thinking if this world is false then everything is false.He thought there should be some reason behind it. And he found that this creation is done by a consciousness to transform mental, vital and physical. He tried to transform but he found that with existing force it was impossible to transform physical. So he went up and searched a new consciousness - Supramental consciousness which gave positive results in physical transformation. He found a by product as this consciousness will give immortality to physical body. But it was not the aim of his search.

Thursday, March 29, 2012

Peacelessness

Peacelessness is the biggest problem in the world. Men are peaceless,countries are peaceless and societies are peaceless too. We are searching solutions but when apply a solution we see its limits.
Saints say that only surrender to God is the solution. We can surrender to God. But the concept of God is so tough to conceive that itself is a problem.
Then what should we do. We should follow the Truth. It will give us positively a peace a day. Here comes the question of patience. Don't worry. If you lose your patience and leave the path of Truth one day you will see the results of little follow up of your Truth. You will get a new faith in Truth after that.
Now your path is straight. Surprisingly you will see a day that Truth and God are the same one.

Sunday, December 18, 2011

Sadhan-Path

साधन - पथ
स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की संसार को यह बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने सभी धर्मों के मतभेद को समाप्त कर दिया. उन्होंने बताया कि किसी भी धर्मं की सच्ची साधना से भगवान की प्राप्ति की जा सकती है. इस विचार ने विश्व- प्रेम की दिशा में बहुत बड़ा काम किया और कर रहा है.
परन्तु इससे लोगों के मन में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि जब सभी धर्मं एक ही बात बताते हैं तो फिर इतने धर्मं उत्पन्न क्यों हुए. इसका उत्तर स्वामी विवेकानंद ने यह दिया कि सभी धर्मं केवल बाह्य रूप में ही भेद रखते हैं, यह भेद देश- काल- परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है और मूल रूप में इनमें कोई भेद नहीं है.
लेकिन श्री अरविन्द योग के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दूसरी प्रकार से दिया जायेगा. श्री अरविन्द योग के अनुसार साधक यदि एक अन्य रूप में भगवान की अभिव्यक्ति चाहता है तब भी साधन-पथ में भिन्नता आ जाएगी. यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि श्री अरविन्द योग का साधक यह तो हमेशा मानेगा कि उसका साधन पथ अन्य मार्गों से भिन्न है पर उसका अन्य साधन पथों से कोई बैर नहीं है. उसे ज्ञात रहता है कि अन्य पथ के लोग भगवान की अभिव्यक्ति अन्य रूपों में चाहते हैं तो हममें और उनमें भेद तो रहेगा ही.
एक प्रश्न और उठता है कि स्वामी विवेकानंद ने धर्मं शब्द प्रयोग किया है जबकि श्री अरविन्द ने साधन पथ और अध्यात्म पथ शब्द का प्रयोग किया है तो क्या श्री अरविन्द योग के साधक का अपने जन्म से प्राप्त धर्मं से सम्बन्ध छूट जाता है? तो इसका उत्तर यह है कि श्री अरविन्द ने अध्यात्म की अपेक्षा सम्पूर्ण धर्मं को ही बाह्य वस्तु माना है. इसलिए जगत के व्यवहार में तो धर्मं बना रहेगा परन्तु आध्यात्मिक और अतिमानसिक चेतना यह उद्घोषित करती रहेगी कि यह केवल व्यवहार ही है. समझदार साधक उसका नाम पूछने पर यह नहीं कहता कि वह तो एक आत्मा है, आत्मा का क्या नाम क्या रूप.
परन्तु अपने सच्चे स्वरुप को उद्घाटित करते हुए श्री माँ ने एक जगह कहा था - मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूँ, मैं भगवान की हूँ.

Thursday, December 15, 2011

Satya aur Prem

ईश्वर की प्राप्ति सत्य या प्रेम किसी से भी की जा सकती है. पर साधन - काल में सत्य को पकड़ कर चलना ज्यादा ठीक रहता है. प्रेम हृदय की चीज है जबकि सत्य दिमाग की चीज है. प्रेम में जरा सी भी सतर्कता न बरती जाये तो यह भावुकता या आसक्ति में परवर्तित हो जाता है. जबकि सत्य को पकड़ कर चलने में ऐसा कोई खतरा नहीं होता. हाँ, कभी- कभी सत्य को पकड़ कर चलने वाला बहुत कठोर व्यवहार कर बैठता है. वह अपने आस- पास के सत्यहीन व्यक्तियों से मृदु व्यवहार नहीं कर पाता है. उसके लिए बस इतनी सलाह है कि वह ऐसे लोगों से मृदु व्यवहार न कर पाए तो न करे पर ज्यादा से ज्यादा मौन रहे .
कई बार ऐसा भी लगता है कि सत्यहीन व्यक्तियों पर क्रोध न किया जाये तो समाज में असत्यता बढती जाती है. पर समाज में असत्यता बढती है या घटती इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए. केवल अपने सत्यपालन पर ध्यान देना चाहिए. हाँ, यह बहुत बाद में ज्ञात होता है कि ऐसे सत्यपालक का प्रभाव बढता ही जाता है. पर वर्तमान में जगत में इतना झूठ भरा है कि इस बात को दिखने में समय लग जाता है.
कई बार ऐसा सत्यपालक खुद ही संशय में होता है कि उसका निर्णय सही है या गलत. पर इस बात की भी परवाह नहीं करनी चाहिए. बस उस समय में जो सबसे सही लगे वह करना चाहिए. माना गलत निर्णय हो गया तो उसके लिए पश्चाताप भी नहीं करना चाहिए. कई बार बाद में ऐसा महसूस होता है कि उस समय जिसको सही समझा था आज गलत लग रहा है. तो ठीक है अब आगे से हम वो करेंगे जो अब सही लग रहा है.
बहुत रहस्य कि बात है कि प्रेम के साधक को सत्य और सत्य के साधक को प्रेम प्राप्त हो जाता है. बात केवल प्रारंभ के समय की है. भावुकता या आसक्ति के कारण पतन न हो जाये इसलिए साधना सत्य को पकड़ कर प्रारंभ करनी चाहिए.