Sunday, December 18, 2011

Sadhan-Path

साधन - पथ
स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की संसार को यह बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने सभी धर्मों के मतभेद को समाप्त कर दिया. उन्होंने बताया कि किसी भी धर्मं की सच्ची साधना से भगवान की प्राप्ति की जा सकती है. इस विचार ने विश्व- प्रेम की दिशा में बहुत बड़ा काम किया और कर रहा है.
परन्तु इससे लोगों के मन में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि जब सभी धर्मं एक ही बात बताते हैं तो फिर इतने धर्मं उत्पन्न क्यों हुए. इसका उत्तर स्वामी विवेकानंद ने यह दिया कि सभी धर्मं केवल बाह्य रूप में ही भेद रखते हैं, यह भेद देश- काल- परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है और मूल रूप में इनमें कोई भेद नहीं है.
लेकिन श्री अरविन्द योग के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दूसरी प्रकार से दिया जायेगा. श्री अरविन्द योग के अनुसार साधक यदि एक अन्य रूप में भगवान की अभिव्यक्ति चाहता है तब भी साधन-पथ में भिन्नता आ जाएगी. यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि श्री अरविन्द योग का साधक यह तो हमेशा मानेगा कि उसका साधन पथ अन्य मार्गों से भिन्न है पर उसका अन्य साधन पथों से कोई बैर नहीं है. उसे ज्ञात रहता है कि अन्य पथ के लोग भगवान की अभिव्यक्ति अन्य रूपों में चाहते हैं तो हममें और उनमें भेद तो रहेगा ही.
एक प्रश्न और उठता है कि स्वामी विवेकानंद ने धर्मं शब्द प्रयोग किया है जबकि श्री अरविन्द ने साधन पथ और अध्यात्म पथ शब्द का प्रयोग किया है तो क्या श्री अरविन्द योग के साधक का अपने जन्म से प्राप्त धर्मं से सम्बन्ध छूट जाता है? तो इसका उत्तर यह है कि श्री अरविन्द ने अध्यात्म की अपेक्षा सम्पूर्ण धर्मं को ही बाह्य वस्तु माना है. इसलिए जगत के व्यवहार में तो धर्मं बना रहेगा परन्तु आध्यात्मिक और अतिमानसिक चेतना यह उद्घोषित करती रहेगी कि यह केवल व्यवहार ही है. समझदार साधक उसका नाम पूछने पर यह नहीं कहता कि वह तो एक आत्मा है, आत्मा का क्या नाम क्या रूप.
परन्तु अपने सच्चे स्वरुप को उद्घाटित करते हुए श्री माँ ने एक जगह कहा था - मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूँ, मैं भगवान की हूँ.

Thursday, December 15, 2011

Satya aur Prem

ईश्वर की प्राप्ति सत्य या प्रेम किसी से भी की जा सकती है. पर साधन - काल में सत्य को पकड़ कर चलना ज्यादा ठीक रहता है. प्रेम हृदय की चीज है जबकि सत्य दिमाग की चीज है. प्रेम में जरा सी भी सतर्कता न बरती जाये तो यह भावुकता या आसक्ति में परवर्तित हो जाता है. जबकि सत्य को पकड़ कर चलने में ऐसा कोई खतरा नहीं होता. हाँ, कभी- कभी सत्य को पकड़ कर चलने वाला बहुत कठोर व्यवहार कर बैठता है. वह अपने आस- पास के सत्यहीन व्यक्तियों से मृदु व्यवहार नहीं कर पाता है. उसके लिए बस इतनी सलाह है कि वह ऐसे लोगों से मृदु व्यवहार न कर पाए तो न करे पर ज्यादा से ज्यादा मौन रहे .
कई बार ऐसा भी लगता है कि सत्यहीन व्यक्तियों पर क्रोध न किया जाये तो समाज में असत्यता बढती जाती है. पर समाज में असत्यता बढती है या घटती इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए. केवल अपने सत्यपालन पर ध्यान देना चाहिए. हाँ, यह बहुत बाद में ज्ञात होता है कि ऐसे सत्यपालक का प्रभाव बढता ही जाता है. पर वर्तमान में जगत में इतना झूठ भरा है कि इस बात को दिखने में समय लग जाता है.
कई बार ऐसा सत्यपालक खुद ही संशय में होता है कि उसका निर्णय सही है या गलत. पर इस बात की भी परवाह नहीं करनी चाहिए. बस उस समय में जो सबसे सही लगे वह करना चाहिए. माना गलत निर्णय हो गया तो उसके लिए पश्चाताप भी नहीं करना चाहिए. कई बार बाद में ऐसा महसूस होता है कि उस समय जिसको सही समझा था आज गलत लग रहा है. तो ठीक है अब आगे से हम वो करेंगे जो अब सही लग रहा है.
बहुत रहस्य कि बात है कि प्रेम के साधक को सत्य और सत्य के साधक को प्रेम प्राप्त हो जाता है. बात केवल प्रारंभ के समय की है. भावुकता या आसक्ति के कारण पतन न हो जाये इसलिए साधना सत्य को पकड़ कर प्रारंभ करनी चाहिए.