ईश्वर की प्राप्ति सत्य या प्रेम किसी से भी की जा सकती है. पर साधन - काल में सत्य को पकड़ कर चलना ज्यादा ठीक रहता है. प्रेम हृदय की चीज है जबकि सत्य दिमाग की चीज है. प्रेम में जरा सी भी सतर्कता न बरती जाये तो यह भावुकता या आसक्ति में परवर्तित हो जाता है. जबकि सत्य को पकड़ कर चलने में ऐसा कोई खतरा नहीं होता. हाँ, कभी- कभी सत्य को पकड़ कर चलने वाला बहुत कठोर व्यवहार कर बैठता है. वह अपने आस- पास के सत्यहीन व्यक्तियों से मृदु व्यवहार नहीं कर पाता है. उसके लिए बस इतनी सलाह है कि वह ऐसे लोगों से मृदु व्यवहार न कर पाए तो न करे पर ज्यादा से ज्यादा मौन रहे .
कई बार ऐसा भी लगता है कि सत्यहीन व्यक्तियों पर क्रोध न किया जाये तो समाज में असत्यता बढती जाती है. पर समाज में असत्यता बढती है या घटती इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए. केवल अपने सत्यपालन पर ध्यान देना चाहिए. हाँ, यह बहुत बाद में ज्ञात होता है कि ऐसे सत्यपालक का प्रभाव बढता ही जाता है. पर वर्तमान में जगत में इतना झूठ भरा है कि इस बात को दिखने में समय लग जाता है.
कई बार ऐसा सत्यपालक खुद ही संशय में होता है कि उसका निर्णय सही है या गलत. पर इस बात की भी परवाह नहीं करनी चाहिए. बस उस समय में जो सबसे सही लगे वह करना चाहिए. माना गलत निर्णय हो गया तो उसके लिए पश्चाताप भी नहीं करना चाहिए. कई बार बाद में ऐसा महसूस होता है कि उस समय जिसको सही समझा था आज गलत लग रहा है. तो ठीक है अब आगे से हम वो करेंगे जो अब सही लग रहा है.
बहुत रहस्य कि बात है कि प्रेम के साधक को सत्य और सत्य के साधक को प्रेम प्राप्त हो जाता है. बात केवल प्रारंभ के समय की है. भावुकता या आसक्ति के कारण पतन न हो जाये इसलिए साधना सत्य को पकड़ कर प्रारंभ करनी चाहिए.
Thursday, December 15, 2011
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