अध्यात्म और विशालता
अध्यात्म में विशालता का बहुत महत्व है. बिल्कुल अंत में तो " मैं सबमें हूँ सब मुझमें है ", " मेरा मैं और विश्व का विराट मैं एक हैं '', " मैं ही सब जड़ चेतन बना हुआ हूँ " आदि जैसी अनुभूतियाँ होती हैं, परन्तु वह बहुत बाद की बात है. प्रारंभ में अपनी विशालता को बढाने के लिए हमें विभिन्न प्रकार की धारणाएं करनी पड़ती हैं .
सबसे पहले तो अनंत आकाश या विशाल समुद्र के किनारे बैठ कर उसमें अपने आपको खो देने का प्रयत्न करना चाहिए. दूसरा प्रयत्न हम यह कर सकते हैं कि जिस प्रकार हम अपने भाई को प्यार करते हैं उसी प्रकार सबसे उतना ही प्यार करने का प्रयत्न करें. इसमें व्यवहार में तो अंतर हो सकता है पर हमें हमेशा अपने दिल में टटोलना होगा कि क्या हमारा प्यार अन्य के साथ भी उतना ही है जितना कि अपने भाई के साथ है .
तीसरा प्रयत्न हम अपने अध्ययन के क्षेत्र में कर सकते हैं. यदि हम एक विद्यार्थी हैं तो विद्यालय की परीक्षा में पास होने के लिए हमें उन विषयों में एकाग्रता रखनी पड़ती है जो हमने चुन रखे हैं परन्तु कुछ समय हम यदि हम अन्य विषयों को दें तो यह हमारी विशालता बढाने में बहुत अधिक सहायक होगा. सामान्य जीवन में भी हमें विभिन्न विषयों का अध्ययन करने के लिए समय निकालना चाहिए.
एक बड़ा वैज्ञानिक, बड़े से बड़ा कलाकार,महान चित्रकार, महान खिलाडी आदि बनना एक महत्वाकांक्षा या स्वभाव हो सकता है परन्तु विशालता बढाने की दृष्टि से ज्यादा से ज्यादा विषयों का अध्ययन करना, कई तरह के खेल खेलना, कई वाद्य यंत्रों को बजाने का अभ्यास करना, चित्रकारी सीखना, पाक कला में हाथ अजमाना, शारीरिक व्यायामों का अभ्यास करना आदि के द्वारा अपने को विस्तारित करना अध्यात्मिक दृष्टि से बहुत लाभदायक होता है.
चूँकि अंतिम रूप में यह सबसे बड़ा सत्य है कि मेरा मैं और विश्व के अन्य किसी भी प्राणी में निवास करने वाला मैं एक ही है बिना विशालता के हम अध्यात्म-पथ पर आगे नहीं बढ पाएंगे. विशालता हमारे अन्दर नमनीयता, सहिष्णुता, सत्य की जिज्ञासा, प्रेम, अपनत्व और सामंजस्य का विकास करती है. अध्यात्म-पथ पर चलने के लिए ये सब आधारभूत गुण हैं.
Saturday, January 15, 2011
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