जड़ - द्रव्य की अस्वीकारिता
हमारे शरीर के जड़ द्रव्य में एक चेतना होती है. यदि हम इस बात को स्वीकार करने में अपने को असमर्थ पाते हैं तो हम इस तरह से स्वीकार कर सकते हैं कि हमारा मन तीन द्रव्यों से बना है जिसमे पहला है मन, दूसरा है प्राणिक मन और तीसरा है भौतिक मन.
इस भौतिक मन की चेतना में संदेह, अविश्वास, डर, आलस्य, तमस आदि निवास करते हैं. इसकी जड़ता किसी भी चीज के प्रवेश को अपने अन्दर प्रवेश करने से रोकती है.
माना हम जिस शहर में रहते हैं वहां कोई महामारी फ़ैल जाये तो शरीर की जड़ चेतना या भौतिक मन उसको अपने अन्दर प्रवेश लेने से रोकता है पर साथ ही इस जड़ चेतना या भौतिक मन में डर का अंश भी बहुत होता है जो बार -बार डरता है कि कहीं यह बीमारी मुझे भी न हो जाये. यह डर ही इसकी जड़ता को हिलाता है और इस बीमारी को हमारे अन्दर प्रवेश करा देता है.
वहीँ जब हम किसी सत्संग में जाते हैं तो वहां सामान्य से अधिक आध्यात्मिक परमाणु होते हैं परन्तु हमारा भौतिक मन अपनी जड़ता के कारण उनको बहुत कम मात्रा में ग्रहण कर पाता है. चूँकि यहाँ भौतिक मन को डर के कारण क्रियाशील होने के अवसर नहीं हैं इसलिए हम बहुत थोड़ा ही ग्रहण कर पाते हैं.
कई बार हम किसी परेशानी में फंसे होते हैं तो हम थोड़ा डर भाव लेकर सत्संग में जाते हैं तब हम कुछ अधिक सत्संग के परमाणु ग्रहण कर लेते हैं. उसके बाद यदि हमारे भौतिक मन के संदेह और अविश्वास के अंश ज्यादा क्रियाशील न हों तो यह ग्रहण हमारे पास ज्यादा स्थाई हो सकता है .
ऐसा ही प्रायः तीर्थयात्रा के समय भी होता है. हमारा मन और प्राणिक मन तो थोड़ा बहुत ग्रहण करता है पर भौतिक मन प्रायः कुछ भी ग्रहण नहीं करता और प्रायः तीर्थयात्रा से लौटते- लौटते तक हम ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि पहले थे. भौतिक मन की ग्रहण शीलता संदेह और अविश्वास को हटाकर ही बड़ाई जा सकती है. इसके लिए हमें अपने मन को उत्तरोत्तर सचेत करना होगा. यद्यपि मन और प्राणिक मन स्वयं अपने आप बहुत प्रगति करने में सक्षम नहीं हैं. सबसे अधिक लाभ तब होता है जब हम अपनी आत्मा को सबसे अधिक प्रधानता देते हैं. गीता में इस भाव को रखने वाला एक श्लोक है जिसका भावार्थ निम्नलिखित है.
शरीर से पर ( शक्तिशाली ) इन्द्रियां ( प्राणिक मन ) हैं. इन्द्रियों से पर मन है. मन से पर बुद्धि ( उच्च मन ) और बुद्धि से भी पर आत्मा है.
अध्याय- 3 , श्लोक- 42
Saturday, January 22, 2011
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