साधन - पथ
स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की संसार को यह बहुत बड़ी देन है कि उन्होंने सभी धर्मों के मतभेद को समाप्त कर दिया. उन्होंने बताया कि किसी भी धर्मं की सच्ची साधना से भगवान की प्राप्ति की जा सकती है. इस विचार ने विश्व- प्रेम की दिशा में बहुत बड़ा काम किया और कर रहा है.
परन्तु इससे लोगों के मन में एक प्रश्न उत्पन्न हुआ कि जब सभी धर्मं एक ही बात बताते हैं तो फिर इतने धर्मं उत्पन्न क्यों हुए. इसका उत्तर स्वामी विवेकानंद ने यह दिया कि सभी धर्मं केवल बाह्य रूप में ही भेद रखते हैं, यह भेद देश- काल- परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होता है और मूल रूप में इनमें कोई भेद नहीं है.
लेकिन श्री अरविन्द योग के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दूसरी प्रकार से दिया जायेगा. श्री अरविन्द योग के अनुसार साधक यदि एक अन्य रूप में भगवान की अभिव्यक्ति चाहता है तब भी साधन-पथ में भिन्नता आ जाएगी. यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि श्री अरविन्द योग का साधक यह तो हमेशा मानेगा कि उसका साधन पथ अन्य मार्गों से भिन्न है पर उसका अन्य साधन पथों से कोई बैर नहीं है. उसे ज्ञात रहता है कि अन्य पथ के लोग भगवान की अभिव्यक्ति अन्य रूपों में चाहते हैं तो हममें और उनमें भेद तो रहेगा ही.
एक प्रश्न और उठता है कि स्वामी विवेकानंद ने धर्मं शब्द प्रयोग किया है जबकि श्री अरविन्द ने साधन पथ और अध्यात्म पथ शब्द का प्रयोग किया है तो क्या श्री अरविन्द योग के साधक का अपने जन्म से प्राप्त धर्मं से सम्बन्ध छूट जाता है? तो इसका उत्तर यह है कि श्री अरविन्द ने अध्यात्म की अपेक्षा सम्पूर्ण धर्मं को ही बाह्य वस्तु माना है. इसलिए जगत के व्यवहार में तो धर्मं बना रहेगा परन्तु आध्यात्मिक और अतिमानसिक चेतना यह उद्घोषित करती रहेगी कि यह केवल व्यवहार ही है. समझदार साधक उसका नाम पूछने पर यह नहीं कहता कि वह तो एक आत्मा है, आत्मा का क्या नाम क्या रूप.
परन्तु अपने सच्चे स्वरुप को उद्घाटित करते हुए श्री माँ ने एक जगह कहा था - मैं किसी राष्ट्र की, किसी सभ्यता की, किसी समाज की, किसी जाति की नहीं हूँ, मैं भगवान की हूँ.